(That Unique 'Break' Which Takes More Effort Than The Actual Work in The Office)
अगर आपसे कोई पूछे कि ऑफिस में सबसे ज़्यादा एनर्जी किस चीज़ में लगती है, तो बगैर दो सैकंड सोचे जवाब दीजिएगा – "लंच ब्रेक की प्लानिंग में!" साहब, यह कोई मामूली ब्रेक नहीं होती, यह एक मिनी-वारफेयर होती है जिसकी तैयारी दफ्तर पहुँचते ही शुरू हो जाती है।
सुबह 10:30 बजे से ही व्हाट्सएप के उस ग्रुप का तापमान बढ़ने लगता है जिसका नाम है "Lunch Buddies - Official (No Boss)." पहला मैसेज आता है, "क्या प्लान है?" यह सवाल दिमाग पर एक जिम्मेदारी का पहाड़那样 टूट पड़ता है। इसका मतलब सिर्फ खाना नहीं, बल्कि एक ऐसा फैसला लेना है जिस पर पाँच लोगों की सहमति हो, जिनकी ज़ुबान अलग, पसंद अलग और पेट की क्षमता अलग-अलग है।
फिर शुरू होती है वो दार्शनिक बहस। कोई कहेगा, "आज तो कुछ तीखा चाहिए," तो कोई बोलेगा, "पेट ठीक नहीं है, दही-चावल जैसा कुछ लेता हूँ।" कोई बजट का रोना रोएगा, "यार, महीने के आखिरी दिन हैं, 50 रुपये वाले समोसे ही ठीक रहेंगे," तो कोई शाही अंदाज़ में कहेगा, "चलो, आज बिरयानी करते हैं!" इन सभी विरोधाभासी इच्छाओं के बीच समन्वय बिठाना, UN की पीस टॉक से कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता।
और भाई साहब, जगह का फैसला तो महाभारत जैसा युद्ध है! "वो दुकान दूर पड़ती है," "इसकी रोटियाँ सख्त मिलती हैं," "उस जगह का बिल्कुल मन नहीं है।" यह वह मुकाम है जहाँ इंसान की सारी दोस्ती और सारे वादे टूटते नज़र आते हैं। आखिरकार, एक घंटे की मंत्रणा और 150 मैसेज के बाद, वो ऐतिहासिक फैसला होता है – "चलो, वही पुराना साउथ इंडियन ढाबा ही सही।"
पर जंग यहाँ खत्म नहीं होती। असली टेंशन तो तब शुरू होती है जब बिल आता है। "तूने तो कोल्ड ड्रिंक ली थी, वो अलग से," "मेरा थाली 120 का था, तेरा 150 का क्यों?" इस गणित को सुलझाने में जितना दिमाग लगता है, उतना तो महीने के एग्ज़ीट रिपोर्ट बनाने में भी नहीं लगता!
दोपहर की यह 'ब्रेक' इतनी थका देती है कि ऑफिस लौटते ही फिर से एक कप चाय की दरकार होती है... ताकि इस 'ब्रेक' की थकान उतारी जा सके। सच कहूँ तो, यह कोई आराम का वक्त नहीं, बल्कि ऑफिस के असली काम से पहले की एक अनिवार्य, हैवी-ड्यूटी टास्क है! क्या आपने भी ऐसी ही 'आरामदायक' ब्रेक का आनंद लिया है?
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